Tuesday, March 29, 2016

एकांत...

खिड़की के चार सींखचों और
दरवाज़े के दो पल्ले के पीछे
इस बेतरतीब बिस्तर
और इन तकियों के रुई के फाहे में,
बिना रुके इस घुमते पंखे
और इस सफ़ेद CFL की रौशनी में,
हर उस शय में
जो मुझे इस कमरे के
चारो तरफ से झांकती है...
इस घुटन में
पालथी मार के बैठा है
चपटा हुआ चौकोर एकांत...
 
मैं इस एकांत को,
तह-तह समेटता हूँ
इसके मुड़े-तुड़े कोनों पर
इस्तरी लगाके इसकी सिलवटों को
समतल करता हूँ,
लेकिन हर बार ये एकांत
वापस छितर जाता है
हर कोने में,
क्या इस एकांत को
बंद किया जा सकता है
किसी बोतल में
और फेक दिया जाए
किसी सागर की अथाह गहराईओं में,
तुम्हारी आँखें भी मुझे
किसी समंदर सा एहसास दिलाती हैं,
क्या पी जाओगी मेरा ये सारा एकांत...

Saturday, March 26, 2016

कोने पे तनहाई...

इन दिनों मैं पेंसिल से लिखता हूँ
ताकि मिटा दूँ लिखने के बाद
और शब्दों को बचा सकूँ
इधर उधर ओझरा जाने से,
काश कि आस-पास उलझे हुये
यूं बेवजह लड़ते हुये
लोगों को भी मिटा पाता
किसी इरेज़र से
और उगा देता वहाँ
गुलमोहर और अमलताश के कई सारे पेड़....

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नीले आमों की गुठलियों पर
काले संतरे उगाने हैं
पर कमबख्त ये बैंगनी सूरज
अपनी हरी किरणें
पड़ने ही नहीं देता इन लाल पत्तों पर...
ये रंग भी अजीब होते हैं न,
ज़रा से इधर उधर हो जाएँ तो
अर्थ ही बदल देते हैं... 

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मैं इन दिनों
किसी खाली डब्बे सा बन के रह गया हूँ,
बिलकुल खोखला,
जो हर छोटी बात पर
ढनमनाता रहता है...
मुझे यकीन था
कि किसी न किसी रोज़
कोई मेरे इस बेवजह के शोर
की वजह तलाशता ज़रूर आएगा,
लेकिन अब मैं खुद बुतला गया हूँ
और खोजता हूँ अपने आप को,
एक खाली से डब्बे का भी क्या वज़ूद होगा भला...

Monday, March 21, 2016

माइनस इनफिनिटी....

तुम्हारे कुछ बाल 
इन कंघियों में कैद होकर रह गए हैं
उसी तरह जैसे मकड़ी
खुद कैद हो जाती है
कभी कभी
अपने ही बुने जाले में...

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ओझराए हुये इन धागों के कोने में,
एक हल्की सी गांठ बांध रखी है
तुम्हारे नाम की,
चाहे कितना भी लटपटा जाऊँ
ज़िंदगी की लटेर के ऊपर,
हमेशा ये सनद रहेगा
कि मेरा एक सिरा बांध रखा है
तुमने हमेशा हमेशा के लिए....

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प्रेम इन्फाईनाईट की तरह है,
चाहे तो किसी से जोड़ लो, घटा लो
गुना करो, चाहे तो भाग लगा लो,
आगे माइनस लगा के
चाहो तो माइनस इनफ़िनिटी कर लो,
लेकिन वो वैसे ही बना रहेगा
उसी अभेद्यता के साथ,
जैसे मिले हुये हों
दो शून्य आपस में
सदा सदा के लिए...

Sunday, March 13, 2016

आधी-अधूरी पंक्तियों का नशा...

मैं एक भ्रम हूँ,
उस आईने के लिए
जो मुझमे खुद को देखता है...

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मुझे पता है
तुम कवितायें नहीं लिखती
लेकिन तुम्हारी मुस्कान
मेरे ऊपर लिखी गयी
तुम्हारी सबसे हसीन कविता है...

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तुमको अपना हमसफर बनाना
या ये कहूँ कि
बनाने का फैसला लेना
उतना ही आसान था जैसे
आँगन में पसरे कपड़ों का
अचानक से आई बारिश में भीग जाना,
लेकिन मुझे अपना हमसफर बना के
तुमने मुझे बना दिया है
कई खोटी चवन्नियों का मसीहा....

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आज शाम है,
कल बारिश
और परसों इश्क़...
उलझी सी बातें हैं न,
फिर उलझ न जाए
बारिश की बूंदे भी
हमारी नज़रों के धागे में...
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