Saturday, December 29, 2012

मुझे माफ़ करना कि मैं खुश हूँ तुम्हारे चले जाने से...

पिछले बारह दिन अजीब से थे, दुःख अफ़सोस, गुस्सा... बस यूँ ही लिखता रहा फेसबुक पर, कुछ शब्दों को यहाँ सहेज कर रख ले रहा हूँ ताकि ताउम्र याद रहे ये आज का काला शनिवार....

Many a times i feel ashamed of being a male... shame Delhi, shame on us... 
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इससे तो बेहतर यही है कि लडकियां पैदा होने से पहले ही मार दी जाएँ...

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हम ऐसे देश में रह रहे हैं जहाँ हर २२ मिनट में एक रेप होता है... हम चाहें तो इस बात पर भी गर्व कर सकते हैं....

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जब कोई जानवर वहशी बन जाए तो उसे जल्द से जल्द मार देने में ही समाज की भलाई है... आने वाली जानवरों की नस्लें जब तक भय न खाने लगें, तब तक Shoot-At-Sight का ऑर्डर दे दिया जाए इन जानवरों को देखते ही...
Disclaimer :- इंसान एक दोपाया जानवर है... :-/

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We are born to fight.. keep fighting, and we will win one day 4 sure... #She is not a VICTIM, She is a FIGHTER...

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सप्ताह बदल गया है, लोगों के स्टेटस भी... कहीं दबंग २ की चर्चा है, कहीं मोदी की जयकार और कहीं आज का ट्वेंटी-ट्वेंटी.... कोई कहता है वीकेंड पर क्या कर रहे हो... और कई लोग वीकेंड मनाने के लिए अद्धा-पौआ का इंतजाम करने में लग गए हैं... आगे सोमवार आएगा, ऑफिस की भागदौड़ में सब भूल भी जायेंगे कि कौन असुरक्षित है, किसके साथ क्या हुआ था... अगर उन्हें सज़ा मिलेगी भी तो क्या होगा... हम तो सुसुप्त अवस्था में रहेंगे... ज्यादा से ज्यादा ख़ुशी में एक कैंडल-मार्च निकाल देंगे... फिर कोई नया हादसा होगा और फिर से याद आएगा ये सब कुछ... ये पीरियोडिक गुस्सा है, जो हर हादसे के बाद दिखता है और फिर छुप जाता है... और इस बीच कई शहरों में कई बलात्कार होते हैं... सिर्फ शारीरिक ही नहीं , मानसिक भी... सड़क पर किसी लड़की के साथ चल कर देखिये... सड़कों किनारे खड़े कई लोग आँखों से बलात्कार करते नज़र आयेंगे... वो एक्स-रे भेदी नज़रों के खिलाफ क्या कोई कानून बनाया जा सकता है... ??

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वो गोर थे, ये काले हैं.. लेकिन हैं अंग्रेज ही.. #delhi police

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किसी ने कहा जो खामोश रहते हैं वो बुद्धिजीवी कहलाते हैं... फिलहाल तो देश बुद्धिजीवियों से भरा पड़ा है...

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ये धरना ये जुलूस ये विरोध कोई खरीदी हुयी भीड़ का नहीं था, ये गुस्सा है ये रोष है... ये निकम्मी, निठल्ली सरकार के खिलाफ जो सोयी हुयी है... जिसके हुक्मरानों में इतनी भी रीढ़ की हड्डी नहीं बची है कि वो सामने आकर दो शब्द यही भर कह देते कि वो दुखी हैं, और आगे से ऐसा नहीं होगा... उन बहरे कानों कानों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए ऐसे कई हंगामों, कई धमाकों की जरुरत है...शायद कुछ लोगों को ये गुस्सा तब समझ में आएगा जब खुदा न खास्ता उनके घर में भी कोई हादसा हो जाए... भगवान् न करे कि ऐसा हो, लेकिन जागिये, आखें खोलिए... गुस्सा दिखाईये कि आपकी-हमारी बहनें असुरक्षित हैं....

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जब पूरा देश आपके एक वक्तव्य का इंतज़ार कर रहा था, आप गायब थे... और हर 25 जनवरी और 14 अगस्त की शाम 7 बजे चले आयेंगे राष्ट्र के नाम सन्देश देने के लिए... हम क्यूँ सुने आपकी बात... आक थू......

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कल जो त्रिपुरा में हुआ उसकी सुनवाई भी फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में हो रही है... या फिर उसके लिए भी जुलूस निकालने होंगे...???? जस्टिस ये है कि हर सुनवाई कि गति तेज हो, अगली तारिख, अगली तारीख का ड्रामा बंद हो और किसी भी घटना(जो शीशे की तरह साफ़ है), जिसके सारे अभियुक्त पकडे जा चुके हैं... १० दिनों के अन्दर सजा की घोषणा की जाए.... चाहे वो दिल्ली हो, गुअहाटी हो या त्रिपुरा.....

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मेरी पूरी वॉल शोक संदेशों से भरी पड़ी है... लोग अलग अलग तरह के शब्द इस्तमाल करके दुःख जता रहे हैं... तुम ये थी, तुम वो थी... तुम्हारी कुर्बानी व्यर्थ नहीं जायेगी, फलाना-ढिकाना....
अरे सब बेकार की बातें हैं, तुम्हारी जान, तुम्हारी कुर्बानी सब ख़त्म...
सच्चाई ये है कि जब आधी दिल्ली तुम्हारे लिए बावरी हुयी जा रही थी, उस समय देश के कई कोनों में बीसियों बलात्कार ज़ारी थे, लोग बलात्कार के कारणों को लेकर ब्लू-प्रिंट तैयार कर रहे थे... देश के नेता अपनी अपनी बेटियाँ गिना रहे थे, और महामहिम का कहना था कि सरकार हर जगह चल के नहीं जा सकती, प्रधानमंत्री के अनुसार सब "ठीक था".... और एक महिला वैज्ञानिक तुमसे ही सवाल कर रही थी कि जब तुम ७ लोगों से घिर गयी थी तो तुमने समर्पण क्यूँ नहीं कर दिया...
मैं तुमसे किस मुंह से कहूं कि तुम्हारे जाने के बाद कोई क्रान्ति आने वाली है, जबकि जानता हूँ ऐसा कुछ नहीं होने वाला... आज और कल देश के लोग तुम्हें आखिरी बार याद करेंगे... एक तरफ तुम्राई अंतिम यात्रा में कुछ लोग आंसू बहा रहे होंगे और दूसरी तरफ इसी शहर के किसी दुसरे कोने में एक बलात्कार हो रहा होगा...


अलविदा, मैं खुश हूँ कि तुम अब ऐसी जगह जा रही हो जहाँ शायद कोई किसी का बलात्कार तो नहीं करता...

Saturday, December 8, 2012

ये सर्दियां और तुम्हारे प्यार की मखमली सी चादर...

आज मौसम ने फिर करवट ली है, ज़रा सी बारिश होते ही हवाओं में ठण्ड कैसे घुल-मिल जाती है न, ठीक वैसे ही जैसे तुम मेरी ज़िन्दगी के द्रव्य में घुल-मिल गयी हो... तुम्हारी ख़ुशबू का तो पता नहीं लेकिन तुम्हारा ये एहसास मेरी साँसों के हर उतार-चढ़ाव में अंकित हो गया है... आज शाम जब ऑफिस से निकला तो ठंडी हवा के थपेड़ों ने मेरे दिल पर दस्तक दे दी... इस ठण्ड के बीच तुम्हारे ख्यालों की गर्म चादर लपेटे कब घर पहुँच गया पता ही नहीं चला...

ऐसा नहीं है कि मैंने बहुत दिन से तुम्हारे बारे में कुछ लिखा न हो, लेकिन जब भी तुम्हारा ख्याल मेरे दिलो-दिमाग से होकर गुज़रता है, जैसे अन्दर कोई कारखाना सा चल पड़ता है, और ढेर सारे शब्द उचक-उचक कर कागज़ पर उतर आने के लिए बावरे हो जाते हैं... वैसे तो मैं हर किसी चीज से जुडी बातें लिखता हूँ लेकिन अपने लिखे को उतनी शिद्दत से महसूस तभी कर पाता हूँ जब कागज़ पर तुम्हारी तस्वीर उभर कर आ जाती है, गोया मेरी कलम को भी अब तुम्हारे प्यार में ही तृप्ति मिलती है...

शाम को जब तुम्हें जी भर के देखता हूँ तो सुकून ऐसा, मानो दिन भर सड़कों पे भटकने के बाद किसी ने मेरे पैरों को ठन्डे पानी में डुबो दिया हो, सारा तनाव, सारी परेशानियां चंद लम्हों में ही काफूर हो जाती हैं और बच जाता तो बस तुम्हारे मोहब्बत का वो मखमली एहसास... तुम्हारे साथ हमेशा न रह पाने का गुरेज़ तो है लेकिन इस बात का सुकून भी है कि मैं तो कबका तुम्हारी आखों में अपना आशियाना बना कर तुम्हारी परछाईयों में शामिल हो चुका हूँ....

तुम्हें पता तो है न
मेरी ख्वाईशों के बारे में
ख्वाईशें भी अजीब हैं मेरी,
कि चलूँ कभी नंगे पाँव
किसी रेगिस्तान की
उस ठंडी रेत पर ,
हाथों में लिए तुम्हारे
प्यार के पानी से भरा थर्मस...
काँधे पर लटका हो
तुम्हारा दुपट्टा
और उसके दोनों सिरे की पोटलियों में
बंधी हो तुम्हारे आँगन की
वो सोंधी सी मिटटी,
उसमे हो कुछ बूँदें
तुम्हारे ख़्वाबों के ख़ुशबू की,
दो चुटकी तुम्हारे इश्क का नमक
और ताजगी हो थोड़ी 
गुलाब के पंखुड़ियों पर
ढुलकती ओस के बूंदों की...
सच में
ख्वाईशें भी अजीब हैं मेरी...

तुम्हें पता भी है हमारा प्यार किस सरगम से बना है, किसी सातवीं दुनिया के आठवें सुर से... जो तुम्हारे दिल से निकलते हैं और मेरे दिल को सुनाई देते हैं बस... और किसी को कुछ सुनाई नहीं देता... बाहर बारिश की कुछ बूँदें आवाज़ लगा रही हैं, आओ इन गीली सड़कों पर धीमे धीमे चलते हुए अपने क़दमों के निशां बनाते चलते हैं... तुम्हारे एहसास के क़दमों के कुछ निशां इस दिल पर भी बनते चले जायेंगे... ताउम्र तुम्हारा एहसास यूँ ही काबिज़ रहेगा इस दिल पर...

Saturday, December 1, 2012

कहो तो आग लगा दूं तुम्हें ए ज़िन्दगी...

कभी कभी मुझे लगता है लिखना एक बीमारी है, एक फोड़े की तरह.. या फिर एक घाव जो मवाद से भरा हुआ है... जिसका शरीर में बने रहना उतना ही खतरनाक है, जितना दर्द उसको फोड़कर बहा देने में हो सकता है.. कभी अगर डायरी में लिखने का मन करता है तो घंटों डायरी के उस खाली पन्ने को निहारता रहता हूँ... फिर मन मार कर कुछ लिखने बैठता हूँ, लिखने की ऐसी कोई महत्वाकांक्षा नहीं, बस उस पन्ने की पैरेलल खिची लाईनों के बीच अपने मुड़े-तुड़े आवारा ख्यालों का ब्रिज बनाते चलता हूँ... खुद से लड़ता-झगड़ता हुआ हर एक वाक्य उन पन्नों पर उतरता जाता है... दूसरे जब मेरा लिखा पढ़ते हैं तो उनकी नज़र में, लिखना किसी फंतासी ख़याल जैसा मालूम होता है, लेकिन असल में ये एक रगड़ की तरह है... जब कोई सूखी पुरानी लकड़ी अचानक से आपके गालों पे खूब जोड़ से रगड़ दी जाए, इसी जलन और दर्द की घिसन के कुछ शब्द निकलकर चस्प हो जाते हैं कागजों पर... कागज़ बेजान होते हैं लेकिन वो दर्द बेजान नहीं होता... 

उस कागज़ पर मेरी बेबसी छप आई है, एक कायरता, खुद से भागते रहने की पूरी कहानी... ऐसी कहानी जिसे अगर खुद दुबारा पढ़ लूं तो खुद को आग में झोक देने का दिल कर जाए... ऐसे में कभी कभी गुस्सा भी बहुत आता है कि मैं सिगरेट क्यूँ नहीं पीता, दिल करता है ८-९ सिगरेट एक बार में ही पी जाऊं, चेन स्मोकर टाईप... हर कश के धुएं के साथ अपने आंसू की हर एक बूँद को भाप बना कर उड़ा दूं...  बाहर से न सही तो कम-से-कम अन्दर से धुंआ-धुंआ कर दूं अपने शरीर को... कागज़ के पन्ने पर फैले उस कचरे के ढेर को चिंदी चिंदी कर हवा में उड़ा देता हूँ.. हवा में उड़ते वो टुकड़े भी जैसे मेरे चेहरे पर ही थू-थू कर रहे हैं... मैं रूमाल निकाल कर अपना चेहरा पोंछ लेना चाहता हूँ, लेकिन वो तो चेहरे से होते हुए मेरे वजूद पर उतर गया है... 

पलटकर घडी को देखता हूँ, सुबह के ४ बजने वाले हैं... ये भी कोई वक़्त है जागते रहने का... मैं फिर से बीमार-बीमार सा फील कर रहा हूँ... मन के भीतर सौ किलोमीटर की रफ़्तार से चलते हुए अंधड़ में तना-दर-तना उखड़ता जाता हूँ....  कमबख्त नींद भी नहीं आती, करवटें पीठ में चुभने लगती हैं... बेबसी से कांपते हुयी अपनी आवाज़ को द्रढ़ता की शॉल में लपेटकर खूब जोर से चिल्लाने का मन करता है... काश कि सपने भी सूखे पत्तों के ढेर की तरह होते... सूखे पत्ते जल भी तुरंत जाते हैं और उनमे ज्यादा धुंआ भी नहीं होता... लेकिन खुद अपने हाथों से अपने सपने जला देना उतना आसान भी तो नहीं... खिड़की से बाहर बंगलौर चमक रहा है, लेकिन अन्दर निपट अँधेरा है... आस-पास माचिस भी नहीं जो आग लगा सकूं इन कागज़ के पन्नों को....

Thursday, November 15, 2012

हम मिडिल क्लास आदमी हैं...

ई पोस्ट अपना भासा में लिख रहे हैं काहे कि मिडिल क्लास का हिस्सा होने के साथे साथ ई भासा भी हमरा दिल से जुड़ा हुआ है...
हम सुरुवे से काफी खुलल हाथ वाले रहे हैं, मतलब पईसा हमरे हाथ में ठहरता ही नहीं है एकदम.... जब हम छोटा थे तो माँ-पापाजी के मुंह से हमेसा सुनते थे कि हम लोग मिडिल क्लास के हैं, हमलोग को एक-एक पईसा का हेसाब रखना चाहिए.... ऊ समय हम केतना बार पूछे कि ऐसा करना काहे इतना ज़रूरी है तब पापाजी कहते थे कि टाईम आने पर अपने आप बुझ(समझ) जाओगे... ओसे तो ज़िन्दगी में केतना बार ई एहसास हुआ कि पईसा केतना इम्पोर्टेन्ट होता है लाईफ के लिए, उसके बिना तो कोनो गुज़ारा ही नहीं है... लेकिन तयियो कभी भी पईसा बचाने का नहीं सोचे... सोचे जब ज़रुरत होगा तब देखल जाएगा...
पापा हमेसा से अपना कहानी हमको सुनाते थे, उनके बाबूजी यानी के हमरे दादाजी किसान थे, फिर कईसे उनके माँ-बाबूजी उसी समय गुज़र गए जब ऊ ढंग से स्कूल जाना सुरु भी नहीं किये थे, उनकी दादीजी थीं केवल.. ऊ भी कुछे साल तक रहीं... पापा को पढने का बहुते शौक था, लेकिन घर में अब कोनो(कोई) कमाने वाला नय था जो ऊ पढ़ पाते... सुरु सुरु में तो बचत पर काम चला लेकिन एगो किसान का बचत पूँजी केतना होता है ऊ तो आप लोगों से नहिएँ न छिप्पल है... जल्दिये पईसा कम पड़ने लगा, तब ऊ बगले में एगो चाची के हियाँ बीड़ी बाँधने लगे, 2oo बीड़ी बाँधने का ऊ समय १ रुपया मिलता था, इसी तरह करते करते ऊ मैट्रिक तो कर लिए लेकिन उनके गावं में इंटर कॉलेज नय होने के कारण उनको गावं छोड़ना पड़ा, लेकिन पढाई ज़ारी रखने के लिए पईसा तो चाहिए ही था सो धीरे धीरे गावं की ज़मीन बिकने  लगी, और पढाई चलती रही.... वहां से पापा ग्रैजुएशन भी कर लिए लेकिन तब तक लम्पसम पूरी ज़मीन बिक गयी थी, बाकी रहल-सहल कसर गंगा मैया ने पूरी कर दी, न जाने केतना ज़मीन गंगा मैया में समा गया....खैर ऊ कहते हैं न, मेहनत कहियो बेकार नय होता है... पापा का नौकरी लगिए गया, फिर सादी भी हो गया... और किस्मत देखिये, सादी के कुछ दिन बाद माँ का भी नौकरी लग गया... दुन्नु कोई सरकारी इस्कूल में शिक्षक... लेकिन अभियो ऊ मिडिल क्लास वाला दिन नय टला था, रहने के लिए कोनो घर नहीं था... तो जोन इस्कूल में माँ पढ़ाती थीं उहे स्कूल के एगो क्लास रूम में दोनों रहते थे, रात में क्लास का बेंच सब को जोड़ के चौकी(बिस्तर) बन जाता था, उहे पर बिछौना लगा देते थे, फिर भोरे भोरे सब फिर से अलग करके क्लास रूम तैयार... इसी तरह ज़िन्दगी चलते रही फिर हमरे दोनों भैया का पढाई... पापाजी उनके पढाई में कोनो कमी नय रखना चाहते थे, दोनों भैया को बचपने में होस्टल भेज दिए... फिर थोडा बहुत पईसा बचाके वहीँ पासे में एक ठो झोपडी बनाये, कहने को हमारा ठिकाना... हमारा घर... लेकिन ऊ तो सरकारी ज़मीन पर था, टेमप्रोरी... अपना ज़मीन खरीदकर उस पर एक कमरे का अपना घर बनाने में दोनों को 20 साल लग गए.. तब जाके 1989 में हम लोग के पास अपना एगो घर हुआ, एक कमरे का घर... हम उस समय ४ साल के थे, जादे नहीं लेकिन तनि-मनी हमको भी याद है... माँ-पापाजी दोनों केतना खुश थे.... फिर हम तीनो भाई बड़े हुए, तीनो इंजिनियर बने... ऊ भी बिना बैंक से एक्को पईसा क़र्ज़(जिसको आज कल मॉडर्न लोग लोन कहते हैं) लिए... पापा कहते हैं एक एक पईसा जोड़ के, संभाल के, बचा के रखे तब्बे आज इतना कुछ अपना दम पर बना पाए...
खैर, ई तो बात थी पापा की, लेकिन जब कुछ दिन पहले हमरा नौकरी लगा तो हमरे दिमाग में बचत जईसा कुछो नहीं था, लेकिन पहिला महिना का सैलरी आदमी का ज़िन्दगी में केतना बदलाव ला सकता है ऊ हम तब्बे जाने, नौकरी से पहिले हम सोचे थे कि पईसा मिलेगा तो ई करेंगे, ऊ करेंगे... लेकिन जब पईसा एकाउंट में था तो सोचे ऐसे करेंगे तो दसे दिन में पैसा ओरा(ख़त्म हो) जाएगा... फिर किससे मांगेंगे, अब तो अपना पूरा खर्चा हमको खुद को देखना है, अपना रहने का, खाने का... फिर कहीं आना जाना हुआ तो टिकट का.. बिमारी-उमारी तो आजकल आदमी को लगले रहता है... अब उसके लिए हम किसी से मांगने थोड़े न जायेंगे... फिर अभी तो आगे पूरा ज़िन्दगी पड़ा हुआ है, जब परिवार बड़ा होगा, घर का ज़िम्मेदारी बढेगा... उसके लिए भी तो आज से ही बचत करना पड़ेगा... तब जाकर ई बात का एहसास हुआ कि ये मिडिल क्लास आदमी क्या होता है...
मिडिल क्लास आदमी वो है जो मॉल में जाता है, वहां कोनो सामान देखता है तो बाकी कुच्छो देखने से पहले प्राईस टैग देखता है, पसंद-नापसंद तो बाद का बात है... जब भी ऑटो में बैठता है तो सोचता है, काश कि बस मिल जाए तो कुछ पैसे बच जाएँ, सामने से एसी बस गुज़रती है तो सोचता है अगर जेनरल बस में भी सीट मिल जाए तो उसी से चल चलेंगे... मिडिल क्लास आदमी एक-आध किलोमीटर तो ऐसे ही पैदल चल लेता है यही सोच कर कि चलो 15-20 रूपये रिक्शे के बचा लिए... ऐसे कितने ही 10-20 रुपये जोड़-जोड़कर एक मिडिल क्लास आदमी बनता है... एक मिडिल क्लास आदमी का कोनो बैकअप नहीं होता है कि महीना के अंत में अगर पैसा ख़तम हो गया तो फलाना से 1500 रुपया ले लेंगे, या फिर कोनो इमरजेंसी पड़ गया तो क्रेडिट कार्ड यूज कर लेंगे.. मिडिल क्लास आदमी अपना बचत के भरोसे जीता है, कोनो बैकअप के भरोसे नहीं... उसका बचत ही उसका पूँजी है, फ़ालतू में जाता हुआ एक भी रुपया उसको कई-कई बार सोचने पर मजबूर करता है...
नौकरी लगने के बाद हमको एहसास हुआ कि हम भी मिडिल क्लास आदमी हैं... ओसे मिडिल क्लास होना एक सोच है, जिसको हम बचपन से जीते आते हैं, अब अगर हम महीना में लाखो रूपया कमाने लगे न, तहियो हम मिडिल क्लास ही रहेंगे काहे कि इंसान सब कुछ बदल सकता है लेकिन अपना सोच नहीं बदल सकता...

Monday, November 12, 2012

मैंने तुम्हें अपना दोस्त समझा था...

ये बिलकुल नया शहर था मेरे लिए, नए लोग, नया माहौल... मैं तो पहले से ही सोच कर आई थी कि यहाँ ज्यादा किसी से दोस्ती नहीं करूंगी, किसी से ज्यादा घुलूंगी-मिलूंगी नहीं... बस अपना कमरा, अपनी पढाई और अपना अकेलापन... पता नहीं क्यूँ मुझे अब इस दुनिया में काफी इनसिक्योरिटी होने लगी थी, बस किसी तरह सब से बचने की कोशिश करती थी... दूसरों से ही क्यूँ, अपने आप से भी...

लेकिन मैं हमेशा से ऐसी नहीं थी... मुझे हमेशा ऐसा लगता था ये ज़िन्दगी बहुत बड़ी है और इसे जीने के लिए हमारे पास वक़्त बहुत कम, बस इसे जी भर के, जी लेने की हड़बड़ी काफी कुछ छूटता-टूटता चला गया... काफी देर बाद ये एहसास हुआ कि ये ज़िन्दगी बड़ी तो है, पर आज़ाद नहीं है, हर एक नुक्कड़ पर कांटेदार तारों के बाड़ लगे हैं, अगर हम ज्यादा हड़बड़ी में हो, तो ये बहुत बेरहमी से खुरच देते हैं ज़िन्दगी की उन पोशाकों को, जिन्हें हम लपेट चलते हैं... मैं इस छिलन को नज़रंदाज़ करके आगे बढ़ जाना चाहती थी, लेकिन धीरे धीरे हिम्मत टूटती चली गयी, इन पगडंडियों पर धीमे धीमे चलने के चक्कर में काफी पीछे छूट गयी, ज़िन्दगी आगे भागी जा रही थी... शुरुआत में बहुत बेबसी सी लगती थी, आंसुओं से भीगे चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों से ढांपे हलके हलके सिसकियाँ भर लिया करती थी...

लेकिन अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, उन सारे सपनों को ज़िन्दगी की अलमारी के सबसे ऊपर वाले खानों में रख कर चुपचाप इस नए शहर में आ गयी थी... खुश रहने या फिर बस दिखते रहने की कवायद ज़ारी थी... कभी कभी अपने आस-पास की लड़कियों को देखती थी, एकदम बोल्ड, सबसे बेखबर, खूब जोर जोर से हल्ला मचाते हुए, लड़कों की तेज़ चलती बाईक को भी ओवरटेक करते हुए तो सोचती थी कि क्या मैं ऐसा नहीं कर सकती... फिर जल्द ही अपने आप को मना लेती थी शायद ऐसा मुमकिन नहीं है अब...

क्लास में बैठे बैठे अपने बगल वाली ख़ाली चेयर को देखकर यही सोचती थी कोई न ही आये तो अच्छा है, लेकिन एक दिन तुम्हें वहाँ बैठा देखकर थोडा आश्चर्य हुआ... जितना हो सके तुमसे कम बातें करने की कोशिश करती थी, लेकिन बगल में बैठते बैठते फोर्मलिटी की बातों से होते हुए हम कब दोस्त बन गए पता ही नहीं चला... तुमसे बात करना अच्छा लगता था, तुम्हारे साथ काफी रिलैक्स महसूस करती थी, जैसे कोई डर नहीं... एक अच्छा दोस्त, जो तुममे देखने लगी थी... लेकिन फिर अचानक से तुम्हारे जाने की खबर सुनी, जैसे किसी ने खूब जोर से धक्का दे दिया हो ऊंचाई पर से... मुझे आज भी याद है तुम्हें अलविदा कहते हुए स्टेशन पर मैं कितना रोई थी, शायद ही कभी किसी के लिए इतने आंसू गिरे होंगे... मेरे बगल वाली चेयर फिर से खाली हो गयी थी... आदत भी एक अजीब शय है छूटते नहीं छूटती... पाने-खोने का गणित भी बहुत झोलमझोल होता है, उसके पचड़े में पड़ने का कोई फायदा भी तो नहीं है न...

उस वाकये को गुज़रे अच्छा ख़ासा वक़्त बीत चुका है, उसके बाद मेरी ज़िन्दगी कई नुक्कड़ों से होती हुयी आज काफी हद तक आज़ाद आज़ाद सी लगने लगी है... आज जब मैं इस शहर को छोड़ कर जा रही हूँ, और तुम यहीं हो, इसी शहर में... मैं ट्रेन का इंतज़ार कर रही हूँ, नज़र बार बार सेल-फोन की तरफ जाती है... कि एक कॉल, एक मेसेज ही सही कुछ तो आये, जिसमे तुमने बस एक अदद "हैप्पी जर्नी" ही लिख भेजा हो... ट्रेन आ गयी है, मैं अब भी अपने मोबाईल की तरफ देखती हूँ, वहाँ कुछ भी नहीं है... फिर उसे अपनी जेब में रखकर, अपना लगेज उठाकर, धीमे धीमे क़दमों से ट्रेन पर चढ़ जाती हूँ... मैं जा रही हूँ इस शहर को अलविदा करके, साथ ही साथ उस रिश्ते को भी जिसे मैंने दोस्ती समझ लिया था...

Tuesday, November 6, 2012

तुम नहीं हो तो क्या हुआ, तुम्हारा एहसास तो है... An evening without you...

आज की शाम पिछले एक साल की हर शामों से थोड़ी अलग है, पिछले गुज़रे एक साल की पोठली बना कर जो तुम मेरे पास छोड़ गयी हो.. उस पोठली में कितना कुछ है, वो दिसंबर की सर्दी, जनवरी की घास पर पड़ी ओस की वो बूँदें, फ़रवरी की वो हलकी सी धूप, मार्च के पेड़ों से गिरते पत्ते, अप्रैल की चादर में लिपटा वो तुम्हारा इकरार, मई की शाखों पर लगे वो ढेर सारे गुलमोहर के फूल... और भी न जाने कितना कुछ... जैसे-जैसे इस पोठली के एक एक खजाने के साथ इस शाम का हर एक अकेला लम्हा गुज़ार रहा हूँ, उतना ही ज्यादा और ज्यादा खुद को तुम्हारे करीब पाता हूँ... पूरा शहर अपने आप में मगन है, वही गाड़ियों की आवाजें, कुछ बच्चे बगल वाली छत पर खेल रहे हैं, बीच बीच में कोई फेरीवाला भी आवाज़ लगा जाता है.. लेकिन इस सबसे अलग मैं इस शहर से कुरेद कुरेद कर तुम्हारी हर एक झलक को अपनी पलकों के इर्द-गिर्द समेटने की जुगत में लगा हूँ... इस शहर की हवाओं में बहुत कुछ बह रहा है, इन हवाओं में घुले तुम्हारे एहसास को अपनी साँसों में भर के एक ठंडक सी महसूस कर रहा हूँ... कई सारे लफ्ज़ हैं जो इन कागज़ के पन्नों पर उतरने के लिए धक्का-मुक्की मचाये हुए हैं, उन सभी लफ़्ज़ों को करीने से सजा कर एक ग़ज़ल लिखना बहुत मुश्किल जान पड़ता है कभी न कभी कोई एक्स्ट्रा लफ्ज़ उतरकर इसे खराब किये दे रहा है...
छुट्टी का दिन बहुत शानदार होता है न, ज़िन्दगी की हर एक शय को हम फुर्सत में देखते हैं, आज भी अकेले यूँ बैठा बैठा उन कई सारे अँधेरे लम्हों को मोमबत्ती की लौ से रौशन कर रहा हूँ, तुम्हें लगता होगा मैं तुम्हें मिस कर रहा होऊंगा, लेकिन नहीं मैं तो उन बीते पन्नों को पढ़ पढ़ कर खुश हुआ जा रहा हूँ जहाँ से होकर गुज़रते हुए आज तुम्हारे लिए ये लम्हा चुराया है और ये ख़त लिख रहा हूँ...
सुनो, तुम्हें पता है जब भी अपने आने वाले कल के बारे में सोचता हूँ, तो मुझे क्या नज़र आता है ? एक लॉन और उसमे लगा एक झूला, काफी देर तक उस लॉन में खड़ा रहता हूँ, फिर सामने की तरफ देखता हूँ तो एक घर, सपनों का घर... पीली-नीली दीवारें, हरी खिड़कियाँ, खिडकियों पर झूलती तुम्हारी पसंद के मनीप्लांट की लताएं... बालकनी में लगी वो विंड-चाईम... सिर्फ एक घर नहीं बल्कि उसके चारो तरफ लिपटे हमारे ढेर सारे सपने...
आने वाले आधे महीने के बीच हो सकता है न जाने कितने ही ऐसे लम्हें आयेंगे जब हम एक धागे के एक एक छोर को पकडे एक-दूसरे से दुबारा मिलने का इंतज़ार कर रहे होंगे, लेकिन मुझे यकीन इस बात का ज़रूर है कि जब हम मिलेंगे बहुत खूबसूरत होगा वो लम्हा...
खैर, बाहर का मौसम बहुत खुशगवार हो रहा है, हलकी बारिश और सर्द हवा... हवा चलती है तो जिस्म से हरारत सी पैदा होती है, फिर जल्दी से तुम्हारे यादों की चादर ओढ़ कर खुद को खुद में समेट लेता हूँ...
कैफ़ी आज़मी जी की एक ग़ज़ल याद आ रही है...

वो नहीं मिलता मुझे इसका गिला अपनी जगह
उसके मेरे दरमियाँ फासिला अपनी जगह...

तुझसे मिल कर आने वाले कल से नफ़रत मोल ली
अब कभी तुझसे ना बिछरूँ ये दुआ अपनी जगह...


इस मुसलसल दौड में है मन्ज़िलें और फासिले
पाँव तो अपनी जगह हैं रास्ता अपनी जगह...


Sunday, October 28, 2012

चलो कुछ तारे तुम्हारे नाम कर दूं..

हर उस बैंगनी रात की गवाही में
उस नीले परदे को हटाकर
चिलमन के सुराखों से,
झांकता हुआ आसमान की तरफ
पल पल बस यही सोचता हूँ,
कुछ तारे तुम्हारे नाम कर दूं...

जब भी उन थके हुए पैरों को
कभी डुबोता हूँ जो
पास की उस झील में,
सन्न से मिलने वाले उस
सुकून को महसूस करके सोचता हूँ,
कुछ ठन्डे पानी के झरने तुम्हारे नाम कर दूं...

जब भी अकेले में कभी
करता हूँ तुम्हारा इंतज़ार,
हर उस पल
घडी के इन टिक-टिक करते
क़दमों को देख कर ये सोचता हूँ,
घडी की सूईओं के कुछ लम्हें तुम्हारे नाम कर दूं...

जब भी तुम्हारे साथ
बिताया वक़्त कम लगने लगता है,
जब कभी भी
तुम्हें भीड़ में खोया मैं
अच्छा नहीं लगता,
अपनी उम्र के साल गिनते हुए सोचता हूँ,
आने वाले सारे जन्म बस तुम्हारे नाम कर दूं...

Sunday, October 21, 2012

आखिर लड़कियों को शादी क्यूँ करनी चाहिए...

इन दिनों ये टॉपिक काफी गरमागरम है तो हमने सोचा हम भी थोडा अपना ब्लॉग सेक लें...
रिसेंटली ये मुद्दा मेरे दिमाग में तब आया जब हरियाणा के कुछ प्रकांड विद्वानों ने अपनी राय दी कि लडकियां जल्दी से जल्दी बियाह दी जाएँ ताकि उनका बलात्कार न हो सके...
वैसे हो सकता है उनकी नज़र में इस बात का कोई ठोस कारण उन्हें समझ में आया होगा, मुझे तो बस इतना ही समझ में आया कि लगता है जवानी में उन्हें एक सांसारिक सुख का उपभोग करने के लिए काफी इंतज़ार करना पड़ा हो और ऐसे में उनके दिमाग में भी कभी बलात्कार का ख़याल आया हो, या फिर हो सकता किसी ने किया भी हो... अच्छा चलिए बलात्कार न सही, यौन शोषण तो ज़रूर किया होगा... अब ऐसे गुणी विद्वजनों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है... ये विद्वान भी बड़े कमाल के हैं इनके हिसाब से लडकियां कोई खिलौना हो सकती हैं जिसका उपयोग पुरुष खेलने के लिए कर सकते हैं या फिर ये कहें करते हैं... कुछ शादी के पहले खेलते हैं और कुछ बेचारों को शादी तक का इंतज़ार करना पड़ता है... खैर ये तो हुयी उन जाहिलों की बातें जो आज की तुलना मुग़ल साम्राज्य से करते हैं... बात यहीं ख़त्म नहीं हुयी, वही बात हैं न कि बात निकली है तो दूर तलक जाएगी...
वैसे तो भारत में मुफ्त की एडवाईस बहुत मिलती है, इसलिए रस्मो-रिवाजों को निभाते हुए पिछले दिनों हमारी प्रिय दोस्त आराधना चतुर्वेदी 'मुक्ति" जी को ऐसे ही किसी विद्वजन ने सलाह दी होगी सो उन्होंने हम सब से बाँट ली... उन्होंने लिखा...
कल एक ब्लॉगर और फेसबुकीय मित्र ने मुझे यह सलाह दी कि मैं शादी कर लूँ, तो मेरी आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो जायेगी :) इस प्रकार का विवाह एक समझौता ही होगा. तब से मैं इस समझौते में स्त्रियों द्वारा 'सुरक्षा' के लिए चुकाई जाने वाली कीमत के विषय में विचार-विमर्श कर रही हूँ और पुरुषों के पास ऐसा कोई सोल्यूशन न होने की मजबूरियों के विषय में भी :)

मतलब अब ये स्टेटस पढ़ कर मेरी आखों के सामने थोड़ी सी चिंता उभर आई, पहले तो हम सोच रहे थे कि केवल बलात्कार से बचने के लिए लड़कियों को विवाह करना चाहिए, अब एक नयी बात सामने आ गयी... सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा... मुझे लगा चलो हो सकता है सामजिक सुरक्षा के लिए विवाह जरूरी हो, अब जहाँ ऐसे लोग घूम रहे हों जो बलात्कार को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानकर चल रहे हों तो वहां ऐसा सोचना ज़रूरी भी हो जाता है... लेकिन ये आर्थिक सुरक्षा ?? यहाँ तो अपने सामने मैं ऐसी लड़कियों को देखता हूँ जो मुझसे ५ से ६ गुना ज्यादा पैसा कमा रही हैं... ऐसी सोच से तो एक दंभ की बू आती है कि केवल लड़के ही अच्छे पैसे कमा सकते हैं... जो लोग ऐसा सोच कर दम्भित हुए जा रहे हैं उन लोगों को महानगर में आकर एक-आध चक्कर लगा लेने चाहिए... अब इस स्टेटस पर क्या और किस तरह की नयी फ्री फंड की एडवाईस मिली वो आप खुद जाकर पढ़ लीजियेगा, वैसे भी इस पर एक पोस्ट लिखी जा चुकी है... आप उसे देवेन्द्र जी के ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं.... खैर यहाँ तक पढने के बाद लड़कियों के विवाह करने के अच्छे खासे कारण मिल गए थे... हम भी संतुष्ट थे चलो, अब तो बेचारी लडकियां विवाह कर ही लेंगी... लेकिन बात यहाँ कहाँ रुकनी थी... टहलते टहलते हम एक गलत पते पर पहुँच गए, गलत पता इसलिए क्यूंकि वहां अपने काम का कोई मैटेरियल आज तक नहीं मिला केवल आलतू-फालतू की बातों की राई से पहाड़ बनाया जाता है... वहीँ पर आराधना जी के उस फेसबुक स्टेटस रो रेफर करते हुए जवाब लिखा गया था..
यह एक टिपिकल नारीवादी चिंतन है जो विवाह की पारंपरिक व्यवस्था पर जायज/नाजायज सवाल उठता रहा है. यहाँ के विवाह के फिजूलखर्चों, दहेज़, बाल विवाह आदि का मैं भी घोर विरोधी रहा हूँ मगर नारीवाद हमें वो राह दिखा रहा है जहाँ विवाह जैसे संबंधों के औचित्य पर भी प्रश्नचिह्न उठने शुरू हो गए हैं, और यह मुखर चिंतन लिव इन रिलेशनशिप होता हुआ पति तक को भी " पेनीट्रेशन"  का अधिकार देने न देने को लेकर जागरूक और संगठित होता दिख रहा है. क्या इसे अधिकार की व्यैक्तिक स्वतंत्रता की इजाजत दी जा सकती है.. क्या समाज के हित बिंदु इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे ? धर्म तो विवाह को केवल प्रजनन के पवित्र दायित्व से जोड़ता है.. अगर पेनीट्रेशन नहीं तो फिर प्रजनन का प्रश्न नहीं और प्रजनन नहीं तो फिर प्रजाति का विलुप्तिकरण तय...
अब तो मेरा चिंतित होना जायज था, ये पहलू तो हमने सोचा ही नहीं... विवाह नहीं तो सेक्स नहीं, सेक्स नहीं तो प्रजनन नहीं और फिर तो ये ७ अरब की जनसँख्या वाली दुनिया की अगली पीढ़ी कैसे आ पायेगी भला... फिर तो विलुप्तिकरण हो ही जाएगा... हालांकि ये सोच भी काफी हद तक हरियाणा के उन विद्वजनों से मेल खाती मालूम होती है क्यूंकि दोनों ही सेक्स के आस पास घूमती है ... लेकिन इसमें सेक्स करने के लायसेंस और आने वाली पीढ़ियों के अस्तित्व को लेकर चिंता भी जताई गयी है... उनकी भी चिंता जायज ही है... मैं उनकी चिंता का सम्मान करता हूँ, और उनकी सोच के आगे नतमस्तक हूँ... जहां ऐसी सोच रखने वाले लोग हैं वहां पीढियां ख़त्म हो ही नहीं सकतीं.... चलिए अच्छा है लोग नए नए कारण ढूँढ ढूँढ कर लाने की कोशिश कर रहे हैं...
लेकिन मुझे एक बात समझ नहीं आती विवाह के पीछे लोग कारण खोजने में काहे लगे हुए हैं, क्या विवाह एक जरूरत है, एक अनिवार्य कदम है जो हर स्त्री/पुरुष को उठाना जरूरी है... ?? हाँ ये ज़रूर मानता हूँ ज़िन्दगी के कई मोड़ पर ये लगता है एक हमसफ़र होता तो भला होता... खासकर उम्र के तीसरे पडाव और अंतिम पडाव पर इंसान मानसिक तौर पर काफी एकाकी महसूस करने लगता है... ऐसे कई लोग अपने आस पास देखे हैं जिन्होंने विवाह न करने के फैसले तो लिए लेकिन एक वक़्त आते आते खुद को अकेला महसूस करने लगे....
खैर ये एक अंतहीन विषय है इसपर अपनी राय मैंने फेसबुक पर ही उनके स्टेटस पर दर्ज कराई थी यहाँ भी उसी कमेन्ट के साथ इति करना चाहूँगा....
वैसे विवाह सबका अपना एक निजी निर्णय होता है सिर्फ और सिर्फ उस कारण से विवाह कर लेना कि भाई हमें उसकी ज़रुरत (चाहे जैसी भी हो) पड़ेगी कहीं से भी उचित नहीं है लेकिन अगर किसी के पास एक हमसफ़र के रूप में कोई हो तो ना करने का कोई कारण नहीं है...
विवाह का अस्तित्व अनिवार्यता और ज़रुरत से परे ही देखा जाना चाहिए.... सिर्फ ज़रूरतों को पूरा किये जाने के लिए विवाह नहीं किये जाते...
Disclaimer:- सोचा था ये पोस्ट व्यंग्य के रूप में रखूंगा लेकिन अंत तक आते आते पोस्ट सीरियस नोट पर ख़त्म कर रहा हूँ... साथ में इससे पहले कि कुछ विद्वजन खुद को समझदार साबित करने की जुगत में लग जाएँ उनसे बस एक बात कहना चाहूंगा... सिर्फ इसलिए कि आप उम्र में मुझसे बड़े हैं या फिर आपके पास मुझसे ज्यादा डिग्रियां हैं आप मुझसे ज्यादा समझदार भी होंगे, मैं ये मानने से बेहद सख्त शब्दों में इनकार करता हूँ...

Saturday, October 20, 2012

आखिर लड़कियों को शादी क्यूँ करनी चाहिए...

इन दिनों ये टॉपिक काफी गरमागरम है तो हमने सोचा हम भी थोडा अपना ब्लॉग सेक लें...
रिसेंटली ये मुद्दा मेरे दिमाग में तब आया जब हरियाणा के कुछ प्रकांड विद्वानों ने अपनी राय दी कि लडकियां जल्दी से जल्दी बियाह दी जाएँ ताकि उनका बलात्कार न हो सके...
वैसे हो सकता है उनकी नज़र में इस बात का कोई ठोस कारण उन्हें समझ में आया होगा, मुझे तो बस इतना ही समझ में आया कि लगता है जवानी में उन्हें एक सांसारिक सुख का उपभोग करने के लिए काफी इंतज़ार करना पड़ा हो और ऐसे में उनके दिमाग में भी कभी बलात्कार का ख़याल आया हो, या फिर हो सकता किसी ने किया भी हो... अच्छा चलिए बलात्कार न सही, यौन शोषण तो ज़रूर किया होगा... अब ऐसे गुणी विद्वजनों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है... ये विद्वान भी बड़े कमाल के हैं इनके हिसाब से लडकियां कोई खिलौना हो सकती हैं जिसका उपयोग पुरुष खेलने के लिए कर सकते हैं या फिर ये कहें करते हैं... कुछ शादी के पहले खेलते हैं और कुछ बेचारों को शादी तक का इंतज़ार करना पड़ता है... खैर ये तो हुयी उन जाहिलों की बातें जो आज की तुलना मुग़ल साम्राज्य से करते हैं... बात यहीं ख़त्म नहीं हुयी, वही बात हैं न कि बात निकली है तो दूर तलक जाएगी...
वैसे तो भारत में मुफ्त की एडवाईस बहुत मिलती है, इसलिए रस्मो-रिवाजों को निभाते हुए पिछले दिनों हमारी प्रिय दोस्त आराधना चतुर्वेदी 'मुक्ति" जी को ऐसे ही किसी विद्वजन ने सलाह दी होगी सो उन्होंने हम सब से बाँट ली... उन्होंने लिखा...
कल एक ब्लॉगर और फेसबुकीय मित्र ने मुझे यह सलाह दी कि मैं शादी कर लूँ, तो मेरी आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो जायेगी :) इस प्रकार का विवाह एक समझौता ही होगा. तब से मैं इस समझौते में स्त्रियों द्वारा 'सुरक्षा' के लिए चुकाई जाने वाली कीमत के विषय में विचार-विमर्श कर रही हूँ और पुरुषों के पास ऐसा कोई सोल्यूशन न होने की मजबूरियों के विषय में भी :)

मतलब अब ये स्टेटस पढ़ कर मेरी आखों के सामने थोड़ी सी चिंता उभर आई, पहले तो हम सोच रहे थे कि केवल बलात्कार से बचने के लिए लड़कियों को विवाह करना चाहिए, अब एक नयी बात सामने आ गयी... सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा... मुझे लगा चलो हो सकता है सामजिक सुरक्षा के लिए विवाह जरूरी हो, अब जहाँ ऐसे लोग घूम रहे हों जो बलात्कार को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानकर चल रहे हों तो वहां ऐसा सोचना ज़रूरी भी हो जाता है... लेकिन ये आर्थिक सुरक्षा ?? यहाँ तो अपने सामने मैं ऐसी लड़कियों को देखता हूँ जो मुझसे ५ से ६ गुना ज्यादा पैसा कमा रही हैं... ऐसी सोच से तो एक दंभ की बू आती है कि केवल लड़के ही अच्छे पैसे कमा सकते हैं... जो लोग ऐसा सोच कर दम्भित हुए जा रहे हैं उन लोगों को महानगर में आकर एक-आध चक्कर लगा लेने चाहिए... अब इस स्टेटस पर क्या और किस तरह की नयी फ्री फंड की एडवाईस मिली वो आप खुद जाकर पढ़ लीजियेगा, वैसे भी इस पर एक पोस्ट लिखी जा चुकी है... आप उसे देवेन्द्र जी के ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं.... खैर यहाँ तक पढने के बाद लड़कियों के विवाह करने के अच्छे खासे कारण मिल गए थे... हम भी संतुष्ट थे चलो, अब तो बेचारी लडकियां विवाह कर ही लेंगी... लेकिन बात यहाँ कहाँ रुकनी थी... टहलते टहलते हम एक गलत पते पर पहुँच गए, गलत पता इसलिए क्यूंकि वहां अपने काम का कोई मैटेरियल आज तक नहीं मिला केवल आलतू-फालतू की बातों की राई से पहाड़ बनाया जाता है... वहीँ पर आराधना जी के उस फेसबुक स्टेटस रो रेफर करते हुए जवाब लिखा गया था..
यह एक टिपिकल नारीवादी चिंतन है जो विवाह की पारंपरिक व्यवस्था पर जायज/नाजायज सवाल उठता रहा है. यहाँ के विवाह के फिजूलखर्चों, दहेज़, बाल विवाह आदि का मैं भी घोर विरोधी रहा हूँ मगर नारीवाद हमें वो राह दिखा रहा है जहाँ विवाह जैसे संबंधों के औचित्य पर भी प्रश्नचिह्न उठने शुरू हो गए हैं, और यह मुखर चिंतन लिव इन रिलेशनशिप होता हुआ पति तक को भी " पेनीट्रेशन"  का अधिकार देने न देने को लेकर जागरूक और संगठित होता दिख रहा है. क्या इसे अधिकार की व्यैक्तिक स्वतंत्रता की इजाजत दी जा सकती है.. क्या समाज के हित बिंदु इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे ? धर्म तो विवाह को केवल प्रजनन के पवित्र दायित्व से जोड़ता है.. अगर पेनीट्रेशन नहीं तो फिर प्रजनन का प्रश्न नहीं और प्रजनन नहीं तो फिर प्रजाति का विलुप्तिकरण तय...

अब तो मेरा चिंतित होना जायज था, ये पहलू तो हमने सोचा ही नहीं... विवाह नहीं तो सेक्स नहीं, सेक्स नहीं तो प्रजनन नहीं और फिर तो ये ७ अरब की जनसँख्या वाली दुनिया की अगली पीढ़ी कैसे आ पायेगी भला... फिर तो विलुप्तिकरण हो ही जाएगा... हालांकि ये सोच भी काफी हद तक हरियाणा के उन विद्वजनों से मेल खाती मालूम होती है क्यूंकि दोनों ही सेक्स के आस पास घूमती है ... लेकिन इसमें सेक्स करने के लायसेंस और आने वाली पीढ़ियों के अस्तित्व को लेकर चिंता भी जताई गयी है... उनकी भी चिंता जायज ही है... मैं उनकी चिंता का सम्मान करता हूँ, और उनकी सोच के आगे नतमस्तक हूँ... जहां ऐसी सोच रखने वाले लोग हैं वहां पीढियां ख़त्म हो ही नहीं सकतीं.... चलिए अच्छा है लोग नए नए कारण ढूँढ ढूँढ कर लाने की कोशिश कर रहे हैं...
लेकिन मुझे एक बात समझ नहीं आती विवाह के पीछे लोग कारण खोजने में काहे लगे हुए हैं, क्या विवाह एक जरूरत है, एक अनिवार्य कदम है जो हर स्त्री/पुरुष को उठाना जरूरी है... ?? हाँ ये ज़रूर मानता हूँ ज़िन्दगी के कई मोड़ पर ये लगता है एक हमसफ़र होता तो भला होता... खासकर उम्र के तीसरे पडाव और अंतिम पडाव पर इंसान मानसिक तौर पर काफी एकाकी महसूस करने लगता है... ऐसे कई लोग अपने आस पास देखे हैं जिन्होंने विवाह न करने के फैसले तो लिए लेकिन एक वक़्त आते आते खुद को अकेला महसूस करने लगे....
खैर ये एक अंतहीन विषय है इसपर अपनी राय मैंने फेसबुक पर ही उनके स्टेटस पर दर्ज कराई थी यहाँ भी उसी कमेन्ट के साथ इति करना चाहूँगा....
वैसे विवाह सबका अपना एक निजी निर्णय होता है सिर्फ और सिर्फ उस कारण से विवाह कर लेना कि भाई हमें उसकी ज़रुरत (चाहे जैसी भी हो) पड़ेगी कहीं से भी उचित नहीं है लेकिन अगर किसी के पास एक हमसफ़र के रूप में कोई हो तो ना करने का कोई कारण नहीं है...
विवाह का अस्तित्व अनिवार्यता और ज़रुरत से परे ही देखा जाना चाहिए.... सिर्फ ज़रूरतों को पूरा किये जाने के लिए विवाह नहीं किये जाते...
Disclaimer:- सोचा था ये पोस्ट व्यंग्य के रूप में रखूंगा लेकिन अंत तक आते आते पोस्ट सीरियस नोट पर ख़त्म कर रहा हूँ... साथ में इससे पहले कि कुछ विद्वजन खुद को समझदार साबित करने की जुगत में लग जाएँ उनसे बस एक बात कहना चाहूंगा... सिर्फ इसलिए कि आप उम्र में मुझसे बड़े हैं या फिर आपके पास मुझसे ज्यादा डिग्रियां हैं आप मुझसे ज्यादा समझदार भी होंगे, मैं ये मानने से बेहद सख्त शब्दों में इनकार करता हूँ...
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Friday, October 19, 2012

This blog has became like a dustbin now....


कई दिनों से कुछ लिखने का मन नहीं कर रहा. ऐसा लगता है जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया हो अन्दर... कुछ भी नया नहीं...कहीं न कहीं कोई दबी सी बात तो है जिसकी खबर मुझे भी नहीं, कुछ ऐसा जो लगातार मुझे परेशान करता रहता है... काश इस एकांत की भी कोई एक्सपाईरी डेट होती, या फिर किसी तश्तरी में इस उदासी को डाल कर दूर आसमान में उछाल पाता और देखता रहता उस उदासी को सूरज के अन्दर समां कर झुलस जाते हुए... फिर शाम की चांदनी और ओस की बूंदों के बीच अपनी मुस्कराहट लिए कुछ अच्छा सा खुशियों भरा पन्ना अपनी डायरी में सजा रहा होता... लेकिन डायरी में भी तरह तरह के रंगों में लिपटी उदासी बिखरी पड़ी होती है... कल रात लिखते लिखते कितने पन्ने फाड़ दिए, ऐसा लगा जैसे कुछ भी बकवास लिखे जा रहा हूँ... जैसे किताबों के पन्ने कोरे हो गए हों... खाली हो चुके मन को आप बाहर से कितना ही संवार लें कोई फर्क नहीं पड़ता क्यूंकि कोरे पन्नों वाली किताब पर जिल्द लगाने का कोई मतलब नहीं...
आज भी लिखने बैठा हूँ तो दिमाग में बस ये टूटे-फूटे से ख्याल उमड़ कर आ रहे हैं, जैसे हर शब्द इधर उधर बेतरतीबी से बिखेर रहा हूँ... लेकिन फिर भी आज सोचा, चाहे जो भी लिखूं उसे पोस्ट कर ही दूंगा... मैंने सुना है मौन रहना लिखने के लिए बहुत ज़रूरी होता है, लेकिन इतने मौन के बावजूद भी आज कलम खामोश है...
कभी अपने मकान की छत पर जाता हूँ तो एक पतली सी दरार से झांकते पीपल के उस नन्हें से पौधे को देखता हूँ, वहां उसके होने का कोई भविष्य नहीं, फिर भी वो उसी ज़द्दोज़हद में पलते रहना चाहता है... लेकिन उसका वहां रहना छत को कमज़ोर कर सकता है..  मैं भी कुछ चीजें अपने दिल की किसी दरार में दबाकर बैठा हूँ शायद, काश कोई आकर मेरे मन के इस पीपल के पौधे को हटा पाता... या फिर कम से कम यही बता देता कि वो दरार कहाँ है क्यूंकि मैं खुद उस टीस को ढूँढ नहीं पा रहा हूँ...
ये पोस्ट पढ़ कर फिर से सलिल चाचू कहेंगे, वत्स चीयर अप... लेकिन क्या करूँ पिछले १०-१५ दिनों की छटपटाहट के बाद भी बस यही कुछ लिख पाया हूँ...

Friday, October 12, 2012

ज़िन्दगी के कुछ कतरे ये भी हैं...

जब भी मौका मिलता है कहीं न कहीं कुछ न कुछ लिखता ही रहता हूँ, आजकल डायरी से ज्यादा फेसबुक सब कुछ सहेजने का काम करता है.. ऐसे ही कुछ कतरे जो अलग अलग मूड में लिखे गए हैं... कुछ डायरी के पन्नों से और कुछ फेसबुक की दीवार से...

**********************
स्कूल से मेरी छुट्टी पहले हो जाया करती थी, घर आकर मैं इधर-उधर टहलता... उस समय घर में कोई नहीं होता था, मैं थोड़ी ही देर में कपडे बदलकर छत पर चले जाया करता... हर मिनट नज़र घर के सामने की सड़क पर चली जाती थी, वहां तक देखने की जी तोड़ कोशिश करता जहाँ तक देख सकूं... ये मेरा हर रोज का रूटीन था... हर शाम मेरी उन छोटी आखों में ढेर सारा इंतज़ार होता था... अजीब बात है न, जबकि पता था कि माँ साढ़े चार बजे से पहले नहीं आएगी.. फिर भी इसी उम्मीद में रहता था कि काश आज थोडा पहले देख लूं उन्हें... बहुत गहरा उतर चुका था वो इंतज़ार... आज १७-१८ साल बाद ज़िन्दगी बहुत आगे निकल आई है... साल भर से ज्यादा होने को आये हैं उन्हें देखे हुए... ऐसा पहली बार हुआ है जब इतने दिनों तक माँ-पापा से नहीं मिला... हालांकि उनसे मिलकर भी उनसे ऐसी कुछ ख़ास बातें नहीं होती हैं... बस एक सुकून सा मिलता है... कलैंडर की तरफ देखता हूँ तो अभी भी दिवाली में एक महीना बाकी है...:-/

***********************
सुबह बाहर गहरा कोहरा था, सड़क पर सूखे पत्ते ओस की बूंदों से लिपटे ठिठुर रहे थे... मैंने खिड़की से झाँका तो देखा, सुबह सुबह कचरे उठाने वालों के अलावा कोई नहीं था... ऐसा लगा उनकी ज़िन्दगी की शेल्फ के हिस्से यूँ ही सड़कों पर खुले रखे हैं... वो बाहर अपना काम कर रहे हैं वो भी ऐसे मौसम में जब अपनी रजाई से निकलकर एक ग्लास पानी पीने के लिए भी मुझे सौ बार सोचना पड़ा था... घडी की तरफ देखा तो ७ बज चुके थे, दफ्तर तो १० बजे निकलना है ये सोच कर वापस रजाई में दुबक गया.. लेकिन नींद आखों के पैमाने से छलक कर कहीं दूर जा चुकी थी... मैं खुद में बहुत छोटा महसूस कर रहा था... ज़िन्दगी के कैनवास पर कई रंग छिड़क चुके हैं लेकिन फिर भी कहीं न कहीं कोई अधूरापन ज़रूर है मुझे पसंद नहीं आता.. कभी कभी ये आईडीयलिस्ट वाली फिल्में देखकर और नोबेल पढ़ के दिमाग दूसरी काल्पनिक सतहों पर काम करने लगता है... फिर उस समय मैं जो सब कुछ सोचता हूँ, कहता हूँ, लिखता हूँ उसे मेरे सभी दोस्त और जाननेवाले एक सिरे से खारिज कर दिया करते हैं... ये सब बातें उन्हें बकवास लगती हैं... फिर थोड़ी देर बाद उस कल्पनिद्रा से बाहर आने पर मुझे भी एहसास होता है शायद कुछ चीजें वास्तविक नहीं हो सकतीं...

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याद है जब कल सुबह मैं तुमसे मिला था, हमने एक साथ बैठ के कितनी ढेर सारी बातें की... तुम्हें अपने उस सपने के बारे में भी बताया जिसमे तुम्हारे नहीं होने के कारण मैं कितना बेचैन हो गया था... अभी अभी थोड़ी देर पहले मुझे एहसास हुआ कि तुम्हारा यूँ मेरे साथ बैठना एक सपना था और तुम्हारी गैरमौजूदगी एक हकीकत.. सच ही तो है कभी-कभी सपने और हकीकत में फर्क करना कितना मुश्किल हो जाता है...

************************
ये दूरियों का गणित है, दूरियां ग़मों से, दूरियां उस बेचैनी से, दूरियां हर उस चीज से जो तुम्हें इस खूबसूरत दुनिया की नजदीकियों का एहसास करने से रोक लेती हैं हर एक बार... जब ठंडी हवा के हलके हलके थपेड़े तुम्हारे होंठों की मुस्कराहट बनना चाहते हैं, जब ये हलकी हलकी बारिश उन आखों की नमी को छुपाने की कोशिश करती नज़र आती है, जब कभी कभी तुम्हारा दिल भी एक मुट्ठी आसमान मांगता है... इस गणित से आज़ाद होकर चलो वहां, जहाँ एक उड़ान तुम्हारा इंतज़ार कर रही है...

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जब हम खुद को अपने आप से आज़ाद कर लेते हैं तो सुकून के ऐसे दौर में पहुँचते हैं जहाँ उस महीन सी आवाज़ को भी सुन लेते हैं जब ओस की बूँदें घास से टकराती हैं...इन आवाजों से मैं तुम्हें भी रूबरू कराना चाहता हूँ... ये ऐसी जगह है जहाँ कुछ भी सही नहीं, कुछ भी गलत नहीं बस एक लापरवाह सी आजादी है... 

************************
मेरे एक हिन्दू मित्र ने मुझसे पुछा था कि मैं भगवान् को क्यूँ नहीं मानता...????
मैंने उससे बस इतना ही पूछा क्या तुम अल्लाह, ईसा या नानक को मानते हो... कभी मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ी है, या कभी चर्च में जाकर प्रेयर में शामिल हुए हो ????
मैं भगवान् के इस वर्गीकरण को नहीं मानता.... भगवान् अगर मन में है तो उसका एक रूप होना चाहिए.... भगवान् का अस्तित्व मन से बाहर निकालकर मंदिर, मस्जिद या और किसी इमारत में बसाने का विरोध मैं करता आया हूँ और हमेशा करता रहूँगा....
 

Saturday, September 29, 2012

एकांत-रुदन...

ज़िन्दगी में दोस्तों का होना कितना ज़रूरी हो जाता है कभी-कभी... कोई फोर्मलिटी वाले दोस्त नहीं, दोस्त ऐसे जिन्हें दोस्ती की बातें पता हो... मोनाली की भाषा में कहूं तो "गंवार" (अच्छे लोगों को वैसे भी गंवार ही कहा जाता है आज कल), जिसके लिए दोस्ती कोई समझौता नहीं... एक ऐसी जगह जहाँ जाकर आप अपने दिल की सभी बातें कर सकते हैं... एकदम खुल कर के  बिना मन में ये डर रखे कि कहीं वो किसी बात का कोई गलत मतलब न निकाल ले या फिर किसी और के सामने आपकी बातें डिस्कस न करे (अच्छी या बुरी कोई भी)... मुझे हमेशा से ही ऐसे किसी दोस्त का साथ चाहिए होता है, पता नहीं क्यूँ... शायद मैं कमज़ोर हूँ, खुद को खुद तक समेट कर नहीं रख पाता... हर इंसान की अपनी एक आवाज़ होती है, लेकिन एक अच्छा दोस्त अपने साथ आवाजों का पूरा लश्कर लेकर आता है... लेकिन आज कल आस पास ऐसा कोई भी नहीं दिखता जिससे ढेर सारी बातें कर सकूं... अपने मन की बातें... सब व्यस्त हैं... हालांकि ये उम्र ही ऐसी है, जहाँ मेरे सारे हमउम्र कहीं न कहीं व्यस्त तो होंगे ही...

कल रात बहुत देर तक यूँ ही पार्क में बैठा रहा, आस पास के लोगों को देखता रहा... ऐसा लग रहा था मानो मैं किसी सड़क के डिवाईडर पर खड़ा हूँ जिसके दोनों तरफ तेज़ी से भागती हुयी गाड़ियां हों और जिसके अन्दर पसरा हुआ सन्नाटा... जैसे कहीं फंस कर रह गया हूँ... वहां खड़े खड़े एक गर्द सी जम जाती है, न जाने कितनी गर्द... जब काफी देर तक किसी से खुल कर बात न करो तो अजीब सी घुटन होने लगती है अन्दर ही अन्दर... जैसे ये अवसाद, ये अकेलापन, ये घुटन, ये आंसू सब एक दूसरे के समानुपाती हो गए हैं...

बस बेवजह ही उदास हुआ जा रहा हूँ, मेरी ये बेवजह की उदासी शायद मेरे अन्दर कहीं न कहीं तह लगाकर बैठ चुकी है... ये एक अवसाद की तरह है मेरे लिए, ऐसे जैसे किसी ने जख्म दिए और उसपर कई सारी जिद्दी मक्खियाँ छोड़ दी हों ... मेरे अन्दर ये किसी अंधे कुवें की तरह उतर आया है.. हर वक़्त एक अजीब सी खलिश, अजीब सा अकेलापन...सच में कभी कभी छुट्टी बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती ऐसा लगता है कोई काम ही नहीं, इससे अच्छा तो ऑफिस ही खुला रहा करे...

ये कोई ब्लॉग पोस्ट नहीं है ये बस एक रुदन है, एकालाप है... इसे एकालाप ही रहने दें... कमेन्ट बक्सा बंद है क्यूंकि कभी कभी हमदर्दी भी कांच की किरचों की तरह चुभन देती है...

कुछ दिनों पहले ऐसे ही कुछ लिखा था...
वो खामोश रहता था,
ख़ामोशी बहने लगी थी
उसके खून के साथ
उसकी कोशिकाओं में समा गयी थी जैसे....
कभी कभी उसका दिल करता था
अपने हाथ के नाखूनों से
खुरच दे सारा बदन
महसूस करे उस दर्द को
और उस बहते खून के साथ
आज़ाद हो जाए उसकी खामोशियाँ भी....

Wednesday, September 26, 2012

तुम जो नहीं हो तो... आ गए बताओ क्या कर लोगे...

कल रात देवांशु ने पूरे जोश में आकर एक नज़्म डाली अपने ब्लॉग पर, डालने से  पहले हमें पढाया भी, हमने भी हवा दी, कहा मियाँ मस्त है छाप डालो... और तभी से उनकी गुज़ारिश है कि हम उसपर कोई कमेन्ट करें (वैसे सच्चे ब्लॉगर लोग के साथ यही दिक्कत है , उन्हें कमेन्ट भी ढेर सारे चाहिए होते हैं ...) हमें भी लगा, ठीक है चलो साहब की शिकायत दूर किये देते हैं ... कमेन्ट क्या पूरी की पूरी पोस्ट ही लिख मारी ...
ये है उसकी लिखी नज़्म ...
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तुम जो नहीं हो तो...
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चाँद डूबा नहीं है पूरा, थोड़ा बाकी है |

वो जुगनू जो अक्सर रात भर चमकने पर,
सुबह तक थक जाता, रौशनी मंद हो जाती थी,
अभी भी चहक रहा है, बस थोड़ा सुस्त है |


यूँ लगता है जैसे रात पूरी, जग के सोयी है ,
आँख में जगने की नमी है,
दिल में नींद की कमी |
सूरज के आने का सायरन,
अभी एक गौरेया बजाकर गयी है |
अब चाँद बादलों की शाल ओढ़ छुप गया है ,
सो गया हो शायद, थक गया होगा रात भर चलता जो रहा |
मेरी मेज़ पर रखी घड़ी में भी,
सुबह जगने का अलार्म बज चुका है |
गमलों में बालकनी है, डालें उससे लटक रही हैं ,

फूल भी हैं , बस तुम्हारी खुशबू नहीं. महकती ..

********************************

और अब कुछ बातें जो मुझे कहनी है ....
कई सारी बातें हैं जो लेखक (या कवि, जो भी कह लो क्या फर्क पड़ता है... कौन सा उसने नोबेल पुरस्कार मिलने वाला है ...) को बतानी ज़रूरी हैं....
तुम जो नहीं हो तो... (जब नहीं है तो ये हाल है, अच्छा ही है नहीं है.. होता तो ये सब पढ़कर निकल ही लेने में फायदा नज़र आता उसको भी...)
वो जुगनू जो अक्सर रात भर चमकने पर,
सुबह तक थक जाता, रौशनी मंद हो जाती थी,
साला, परेशान तुम हो और उस बेचारे जुगनू को रात भर थकाए दे रहे हो... वो भी सोचता होगा किस आशिक के चक्कर में पड़ गए... हद्द होती है यार.... बेचारा जुगनू.... :-(
यूँ लगता है जैसे रात पूरी, जग के सोयी है ...
बताईये रात को भी जगाकर खुश हो रहे हैं साहब, ज़रा भी नहीं सोचा कि और भी आशिक होंगे जिनको रात को जल्दी से सुला देने में ज्यादा इंटरेस्ट होगा... ऐसे स्वार्थी किस्म के आशिक न खुद भी कुछ नहीं करेंगे दूसरों पर भी रात का पहरा लगा दिया है...
आँख में जगने की नमी है,
दिल में नींद की कमी..

ये तो हमको हार्डवेयर प्रॉब्लम लगता है, देखो बेटा हमारी बात मानो तो हमारे घर के पास एक होम्योपैथी का बहुत अच्छा क्लिनिक है वहां तुमको दिखवाये देते हैं... गंभीर बीमारी लगती है...
सूरज के आने का सायरन,
अभी एक गौरेया बजाकर गयी है..

अबे रात के पौने ग्यारह बजे की पोस्ट में तुमको कौन सा सूरज सायरन दे रहा है, भारी घनघोर समस्या है, हमारे ख्याल से तो तुमको अगल बगल के पडोसी गाली दे रहे हैं, अरे इतनी देर से रात को जगाकर रखा है... और भगवान् के लिए कौवे को गौरैया मत समझा करो यार... :-(
अब चाँद बादलों की शाल ओढ़ छुप गया है ,
सो गया हो शायद, थक गया होगा रात भर चलता जो रहा..

अबे दुनिया की ऐसी कोई चीज छोड़ी भी, शाल ओढ़ कर छुप गया है, और नहीं तो क्या... छुपे नहीं तो क्या करे बेचारा... देखो बेटा बाकी सब तो ठीक है, लेकिन चाँद को यूँ परेशान मत किया करो बहुत लोगों की बददुआ लगने का खतरा है... क्यूंकि बच्चों के लिए वो मामा है, शादीशुदा स्त्रियाँ उसी चाँद को देखकर करवाचौथ का व्रत तोडती है (और देखो न करवाचौथ आने भी तो वाला है..) और प्रेमियों के लिए तो चाँद सब कुछ है.. तो बच के ही रहो...
मेरी मेज़ पर रखी घड़ी में भी,
सुबह जगने का अलार्म बज चुका है..

हाँ सही है अब जाग जाओ और दफ्तर को निकलो... खुद तो वेल्ले बैठे रहेंगे और दुनिया को भी परेशान करते रहेंगे... हुह्ह्ह्ह...
गमलों में बालकनी है, डालें उससे लटक रही हैं ,
फूल भी हैं , बस तुम्हारी खुशबू नहीं महकती ...
गमलों में बालकनी ??? फूलों से तुम्हारी (किसकी) खुशबू ??? लो जी अब तो प्रॉब्लम सोफ्टवेयर तक पहुँच चुकी है... जितनी जल्दी हो सके आगरे का रुख करो...
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ये पोस्ट सिर्फ इसलिए ताकि लोग इसी तरह नज़्म लिखते रहे और उनकी सप्रसंग व्याख्या के साथ साथ हमारे ब्लॉग का भी दाना पानी चलता रहे... :) मुझे पता है देवांशु माईंड नहीं करेगा क्यूंकि उसके लिए उसको घुटनों पर जोर डाल डाल के माईंड खोजना पड़ेगा और वो तो मिलने से रहा... कसम से....

Friday, September 21, 2012

प्यार एक सफ़र है, और सफ़र चलता रहता है...

पार्क में बैठना कितना सुकून देता है, बस थोड़ी देर ही सही... मुझे भी अच्छा लगता है बस यूँ ही बैठे रहो और आस-पास देखते रहो... कई तरह के लोग... हर किसी की आखों से कुछ न कुछ झांकता रहता है... ढलती हुयी शाम है, हल्के हल्के बादल है... ठंडी हवा चल रही है... पास वाली बेंच पर कई बुज़ुर्ग आपस में कुछ बातें कर रहे हैं... ऊपर से तो वो मुस्कुरा रहे हैं लेकिन उनकी आखें सुनसान हैं... उस सन्नाटे को शायद शब्दों में उतारना मुमकिन न हो सके.... उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर सभी के जहन में "क्या खोया-क्या पाया...." जैसा कुछ ज़रूर चलता होगा... कितनों के चेहरे पर इक इंतज़ार सा दिखता है... इंतज़ार उस आखिरी मोड़ का... जहाँ के बाद क्या है किसी ने नहीं देखा... किसी ने नहीं जाना...
उसकी ठीक दूसरी तरफ प्ले ग्राउंड में कुछ बच्चे खेल रहे हैं, उनकी दुनिया में कोई परेशानी नहीं है...परेशानियां है भी तो कितनी प्यारी-प्यारी सी... किसी की बॉल किसी दूसरे बच्चे ने ले ली, किसी के पैरों में थोडा सा कीचड लग गया... किसी को आईसक्रीम खानी है... उन छोटे छोटे बच्चों के आस-पास ही तो ज़िन्दगी है... ज़िन्दगी उन्हें दुलार रही है, उन्हें संवार रही है... उन बच्चों के साथ उनके माता-पिता भी ज़िन्दगी ढूँढ़ते रहते हैं... उनको खेलते हुए देखकर मेरे चेहरे पर बरबस ही मुस्कराहट की कई सारी रेखाएं उभर आती हैं....

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सामने की तरफ देखता हूँ तो एक प्रेमी जोड़ा हाथों में हाथ डाले धीमे धीमे टहल रहा है... उन्हें लगता है यूँ धीमे चलने से वक़्त भी धीमा हो जायेगा... लेकिन ये तो उसी रफ़्तार से चलता है... वो बड़े प्यार से एक दूसरे की आखों को देख रहे हैं... अपनी अपनी निजी परेशानियों को थोड़ी देर के लिए भूलकर बस एक दूसरे का साथ इंजॉय कर रहे हैं शायद... दोनों में से कोई कुछ नहीं कह रहा है... या फिर ये वो भाषा है जो मैं नहीं सुन सकता... इन खामोशियों के कोई अलफ़ाज़ भी तो नहीं होते... वो बिना कुछ कहे ही हर कुछ सुन सकते हैं, हर कुछ महसूस कर सकते हैं... इस लम्हें को कोई भी चित्रकार या फोटोग्राफर कैद करना चाहेगा... बादल आसमान को धीरे धीरे ढकते जा रहे हैं... हलकी-हलकी बारिश शुरू हो गयी है.... लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं... वो तो कब के प्यार की बारिश को महसूस कर रहे हैं... बादल गरजने की ज्यादा आवाज़ तो नहीं महसूस की लेकिन बिजली का चमकना साफ़ दिख गया अँधेरे में.... अचानक से बारिश तेज़ हो गयी है... बारिश... उफ्फ्फ क्यूँ होती है ये बारिश... पार्क की सारी बेंच गीली हो गयी हैं... मैं अपनी छतरी निकाल कर अपने कमरे की तरफ बढ़ने लगता हूँ... वो अब भी एक दूसरे का हाथ पकडे एक शेड के नीचे खड़े बारिश के थमने का इंतज़ार कर रहे हैं..

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पार्क की एक बेंच पर बैठा आसमान से बातें कर रहा हूँ कि, दो बेंच छोड़कर बैठे दो थोड़े जाने पहचाने चेहरे दिखे.. पिछली बार की ही तरह कोई कुछ नहीं बोल रहा.. एक लम्बी चुप्पी के बाद लड़की ने कुछ कहा, लड़के ने हामी में सर हिला दिया है... और फिर खामोशियाँ बातें करने लगीं... प्यार करने वालों को देखकर अच्छा लगता है... वैसे भी इस भाग दौड़ में यूँ फुरसत के पल कितने कम रह गए हैं... शुक्र है प्यार के इस रास्ते में दोराहे नहीं होते... इंसान उस साथ को जीता रहता है और खुश रहता है... आज मौसम ठीक है लेकिन मुझे कुछ काम है, मैं पार्क के गेट से बाहर निकलते हुए एक बार पलट कर देखता हूँ... वो दोनों अब भी खामोश हैं... वो शाम बहुत मुलायम सी थी और वो दोनों इसे ओढ़कर बड़े प्यार से बैठे थे....

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आज काफी दिनों बाद पार्क आया हूँ, पर सब कुछ पुराना पुराना सा है... वैसे भी चीजें कहाँ बदलती हैं उन्हें देखने का नजरिया बदलता जाता है... बदलना भी एक अजीब शय है, मैं कभी कभी मज़ाक में अंशु से पूछता हूँ कि पिछले १ साल में तुम्हारी ज़िन्दगी में क्या क्या बदला, तो वो खिलखिला कर जवाब देती है "तुम जो आ गए..."  और ऐसा कह कर अपना सर मेरे कंधे पर टिका दिया करती है... उस समय उसकी आखों में अजीब सी चमक होती है... फिर मैं ग़र पूछूं कि मेरे अलावा क्या बदला... फिर वो बोलती है "छोडो न कुछ भी बदला हो मुझे क्या.. बदलने दो जो भी बदलता है..." इन्हीं ख्यालों में खोया खोया मैं यूँ ही मुस्कुरा रहा हूँ... तभी मेरी नज़र एक लड़के पर पड़ी, वही जिसे मैं नहीं जानते हुए भी जानता हूँ... वो आज अकेला है, शायद इंतज़ार कर रहा हो उस लड़की का.... लेकिन आखों में इंतज़ार की कोई झलक नहीं... वो सूनी आखों से पास के गमले की मिटटी को देख रहा है... काफी देर तक कोई हलचल नहीं... उसका अकेलापन मुझे परेशान कर रहा है... मन में कई तरह के प्रश्न घुमड़ रहे हैं.. फिर भी बिना उससे कुछ कहे वहां से उठ जाता हूँ...

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पता नहीं क्यूँ आज उस निश्चित समय पर मैं पार्क आने के लिए बहुत बेचैन हूँ... तेज़ क़दमों से मैंने पार्क के अन्दर कदम रखा, फिर घडी की तरफ निगाह डाली तो आज शायद थोडा पहले आ गया... मैंने इधर उधर निगाह दौड़ाई और एक खाली बेंच पर बैठ गया... नज़र पार्क के गेट पर टिकी हुयी है, भला किसका इंतज़ार है मुझे और क्यूँ... वो लड़का आता हुआ दिख रहा है, लेकिन वो आज भी अकेला है... वो आकर अपनी उसी पूर्वनिर्धारित बेंच पर बैठ गया है... थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद मुझसे रहा नहीं जाता और मैंने उसकी तरफ कदम बढ़ा दिए हैं... मैं उसको जाकर हेलो करता हूँ... वो थोड़ी अजीब सी प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखता है..
मे आई सिट हियर ???
या स्योर...
डु यू नो हिंदी .. ? (बंगलौर में ऐसा पूछना पड़ता है....)
हाँ.. (इसका जवाब हाँ में होना ज़रूरी था नहीं तो बाकी की पोस्ट इंग्लिश में हो जाती...)
फिर मैं उसको वो बातें बताता हूँ जो मैंने ओबजर्व की थीं... मेरी बातें सुनते सुनते उसकी आखें और सूनी होती जा रही हैं ... वो इसका कोई जवाब नहीं देता, उठ कर जाने लगता है ...
क्या हुआ ??
कुछ नहीं... मेरी ट्रेन है आज रात को, मैं ये शहर छोड़ कर जा रहा हूँ ....
फिर शायद उसे मेरी आखों में उभर आये ढेर सारे प्रश्न दिखने लग गए... काफी सोच कर रूंधे गले से उसने कहा..
कल रात उसकी शादी हो गयी, उसके पापा हमारी शादी को तैयार नहीं थे... और बिना उनकी मर्ज़ी के वो तैयार नहीं थी...
फिर काफी देर तक वहां सन्नाटा छाया रहा, मेरे पास उसे कहने के लिए कुछ नहीं था... थोड़ी देर बाद उसने खुद कहा...
इस शहर ने हमें बहुत कुछ दिया.. हम यहीं मिले, यहीं दोस्त बने और फिर यहीं प्यार भी हो गया... आज जब वो मेरे साथ नहीं है तो इस शहर को यूँ ही छोड़ कर जा रहा हूँ, मैं नहीं चाहता कि इस शहर को मैं उदास निगाहों से कभी देखूं... चाहता हूँ पार्क की इस बेंच पर फिर कोई प्यार करने वाले बैठे, यहाँ अपनी उदासी का रंग नहीं बिखेरना चाहता... इस शहर को अपनी तन्हाई से दूर रखना चाहता हूँ... ताकि कल अगर इस शहर को कभी याद करूँ तो बस अच्छी अच्छी यादें ही मिलें... हमें साथ में जितना वक़्त भी भगवान् ने दिया बस उन्ही लम्हों को समेटे एक नए सफ़र पर निकल रहा हूँ... जानता हूँ उतना आसान नहीं होगा मेरे लिए, लेकिन उतना आसान आखिर दुनिया में है भी क्या भला... ये आखिरी इम्तहान भी देना ज़रूरी है न अपने प्यार को निभाने के लिए... ताकि अगर इस इम्तहान में पास हो गया तो फिर अगले जन्म में उसके साथ हमेशा हमेशा रह सकूं....
वो जा रहा है, मैं चाह कर भी कुछ न बोल सका...
बारिश धीमे धीमे अपनी बूँदें धरती पर फैला रही है... पहली बार मिटटी की सोंधी खुशबू मुझे अच्छी नहीं लग रही... आस-पास का माहौल नम हो गया है, सडकें धुंधली दिखने लगी हैं... छतरी होते हुए भी मैं नहीं खोल रहा और भारी कदमो से पार्क से बाहर निकल रहा हूँ, पलट कर देखता हूँ तो एक प्रेमी जोड़ा एक दूसरे का हाथ पकडे उसी शेड के नीचे खड़े बारिश के थमने का इंतज़ार कर रहा है... सच में प्यार जितनी देर भी रहता है हम बस उसी में रहते है... ये सफ़र चलता रहता है और साथ साथ हमारी ज़िन्दगी भी ...

Wednesday, September 12, 2012

चाय का दूसरा कप... (2)

पिछली पोस्ट को पढने के बाद पता नहीं आपको इस किताब ने कितना आकर्षित किया होगा लेकिन मुझे इस किताब को पढ़ते पढ़ते कई बार ये ख्याल आया कि कैसा लगेगा अगर कोई ऐसा जिसके साथ आप हर रोज अपने कई सारे लम्हें जीते हों वो अचानक से कहीं ओझल हो जाए... और अगर वो आपको कोई अपना हो, सोच के ही मन में एक रुदन सा होने लगता है... एक एकाकी पिता के लिए उनके दोस्त जैसे बेटे का लापता हो जाना ... हर बार देवदत्त उसे लापता मानने से इनकार कर देते हैं, क्यूंकि गुमशुदा केतन नहीं वो खुद हो गए हैं उसकी स्मृतियों के बीच... उनके हिसाब से वो लौट आएगा थोड़े वक़्त के बाद... लेकिन तब तक का इंतज़ार देवदत्त जी नहीं पा रहे हैं... उनके हर उस लम्हें में घुट घुट कर जो बेबसी के कांटे उभरते हैं उनको सीधे साफ़ सटीक शब्दों में उतारने में सफल हुए हैं ज्ञानप्रकाश विवेक ...
बहुत दिन पहले देवदत्त बड़ी उम्मीद, भरोसे और विश्वास के साथ पुलिस स्टेशन गए थे, गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने... क्या हश्र हुआ था उनका ? जैसे अपना वजूद गुम कर आये हों... रास्ते में वो ऐसे चलते रहे जैसे बिना पैरों का आदमी... वो चलते रहे.... उनके भीतर कोई खलिश रेंगती रही...पुलिस स्टेशन का ठस्स माहौल उनके पीछे पीछे चलता आया.. वो घबराते रहे.. सोचते रहे-- ऐसा लगता था, वहां इंसान नहीं लोहे के आदमी बैठे है.. ऐसे लोहे के आदमी जो दूसरों के दुःख को भी मखौल में बदल देते हैं... 
          दिन भर देवदत्त सड़कों पर इधर उधर भटककर घर पहुँचते हैं हालांकि वो आना नहीं चाहते... लेकिन उनके बेबस पैर आखिर जाएँ भी तो जाएँ कहाँ... घर पहुंचकर भी उन्हें कुछ समझ नहीं आता तो वो चुपचाप केतन के दरवाजे के पास जाकर खड़े हो जाते हैं, बस टकटकी लगाकर उस दरवाज़े को देखते रहते हैं जैसे अभी केतन उस दरवाज़े से निकल कर उनकी तरफ हाथ बढ़ा देगा... फिर यूँ ही उभें चाय पीने का ख़याल आता है.. वो चाय का कप उठाते हैं, फिर कहीं खो से जाते हैं..
बेजान चीजें कई बार कितना तंग करती हैं। जैसे जिंदा होकर सामने आ बैठी हों आपसे जिरह करती हुईं। जैसे कि यह कप, जो देवदत्त के हाथ में है, जिस पर ‘डैड’ लिखा है अंग्रेजी में। इसे केतन लाया था, देवदत्त के बर्थडे पर। पापा के लिए वह महंगे गिफ्ट खरीदता था। एक बार उसकी जेब में पैसे कम थे। उसने इस कप को गिफ्ट के रूप में देवदत्त को पेश किया। देवदत्त खुश हो गया। उन्होंने केतन से हाथ मिलाया। दोस्त हाथ मिलाता है, देवदत्त को याद है। उस दिन केतन ने चाय बनाई। इसी नए कप में, जिस पर डैड लिखा हुआ था, चाय डालकर पापा के सामने, मेज पर कप रखते हुए कहा था, ‘पापा, आप इस कप में चाय पीयेंगे तो मुझे लगेगा यह मेरा मामूली-सा गिफ्ट बहुत बड़ी चीज हो गया है।’ 
एक पिता की खोए हुए बेटे के लिए लाचारी, बेकरारी, यहां बहुत कुछ कह देती है। काव्यात्मक अभिव्यक्ति, बोलचाल की आम शब्दावली, ज्ञानप्रकाश विवेक का नैरेटर के रूप में मिजाज यहां मन मोह लेता है... वक़्त धीरे धीरे बीतता जाता है, हर रोज सुबह देवदत्त इसी उम्मीद में जागते हैं कि शायद आज केतन वापस आ जाये.. हर रोज़ उसके कमरे का दरवाज़ा नॉक करके पूछते हैं "मे आई कम इन".. जबकि वो जानते हैं इसका कोई जवाब नहीं आएगा, फिर भी वो पूछते हैं... हर रोज उसका बिस्तर साफ़ करते हैं, पहले से ही करीने से सजाये कमरे को फिर साफ़ करते हैं ताकि वो जब भी आये उसे कमरा चकाचक मिले...
रैक में रखे केतन के नए जूते उठाकर सूंघने लगे हैं देवदत्त... कोई जूते भी सूंघता है किसी के भला... केतन पुराने जूते पहनकर चला गया, नये जूते छोड़ गया। देवदत्त केतन की गंध को महसूस करना चाहते हैं। चाहे वह पैरों की गंध हो या पसीने की...  कोई शख्स न हो तो.. उसके न होने की भी गंध होती है। देवदत्त शायद उसी गंध को महसूस कर रहे हैं...
हर लम्हें इसी तरह से गुज़रते हैं... इसी इंतज़ार के इर्द-गिर्द कहानी आगे चलती है... देवदत्त जब भी चाय बनाते हैं, दो कप बनाते हैं... कहीं चाय पीते पीते ही केतन आ गया तो... कभी बाहर भी चाय पीते हैं तो दो कप बनवाते हैं... एक कप उठाकर वो पीते रहते हैं और दूसरा कप वहीँ साईड में पड़ा रहता है... केतन के इंतज़ार में रहता है वो "चाय का दूसरा कप" ...

पहली बार किसी किताब के बारे में लिखा... उम्मीद है आपको पोस्ट अच्छी लगी होगी और ये किताब ज़रूर पढ़ें , किताब भी अच्छी लगेगी ...

  • पुस्तक : चाय का दूसरा कप (उपन्यास) 
  • लेखक : ज्ञानप्रकाश विवेक 
  • मूल्य : रुपये : 150/-.

Sunday, September 9, 2012

चाय का दूसरा कप... (1)

कई दिनों से कोई किताब पढने का सोचते सोचते, आखिर इस वीकेंड में चार किताबें खरीद लाया...
१. कव्वे और काला पानी- निर्मल वर्मा
२. रात का रिपोर्टर- निर्मल वर्मा
३. गृहदाह- शरतचंद्र 
४. चाय का दूसरा कप- ज्ञानप्रकाश विवेक

जो भी किताबों के शौक़ीन हैं अधिकाँश लोगों ने पहली तीन किताबें ज़रूर पढ़ी होंगी... हाँ चौथी किताब थोड़ी नयी है बहुतों के नज़र के सामने से न गुजरी होगी... अभी कुछ दिनों पहले दैनिक ट्रिब्यून में इस किताब का रिव्यू पढ़ा तभी से पढने का मन कर गया.... ट्रिब्यून के अनुसार "देवदत्त और उनके खोए बेटे केतन का वियोग समझाती, धुआं छोड़ती, टीस को गहराती, अपने और आसपास के माहौल को जिंदा बनाती-बताती कहानी है उपन्यास ‘चाय का दूसरा कप' ..."
बस उसी किताब के थोड़े अंश अपनी नज़र से लिखने की कोशिश कर रहा हूँ...
ये उपन्यास पिता-पुत्र के रिश्तों के गलियारों में टहलते हुए कई बार आपके अन्दर तक उतर जाने का माद्दा रखता है...
कहानी शुरू होती है पिता (देवदत्त) के खालीपन से... उनका इस दुनिया में कोई भी नहीं एक पुत्र के सिवा और वो भी ७ दिनों से लापता है.... वो चलते चलते ठिठक जाते हैं, जैसे किसी ने आवाज़ दी हो...
वो पलटकर देखते हैं.. कुछ इस अंदाज़ से जैसे आवाज़ के चेहरे को पहचानने की कोशिश कर रहे हों... आवाजें.... इतनी सारी आवाजें.... आवाजों का बीहड़.... लेकिन वो आवाज़ जो उन तक पहुंची थी, कहीं नज़र नहीं आती ... दूर तक कोई जानी पहचानी शक्सियत भी नज़र नहीं आती, की जिसने आवाज़ दी हो... शायद आवाज़ किसी ने भी नहीं दी.. शायद वहम हो... शायद कोई लावारिस या भटकी हुई आवाज़ उनके सामने आ गिरी हो... किसी लहू-लुहान अदृश्य परिंदे की तरह.... वो जानते हैं उन्हें आवाज़ देने वाला कोई नहीं.. फिर भी वो चलते चलते कोई सगी सी आवाज़ सुन लेते हैं.... पराई दुनिया में सगी सी आवाज़, जो होती नहीं.... होने का भ्रम रचती है....
मैं भी ये पंक्तियाँ पढ़ते पढ़ते उसी एकाकीपन में उतर जाता हूँ, सच में कैसा लगता होगा देवदत्त को, जब वो यूँ अकेले खोये खोये सड़क पर चल रहे होते हैं... चलते चलते वो बाज़ार से होकर गुज़रते हैं... बाज़ार जहाँ से उन्हें कुछ नहीं खरीदना... न खरीदने वाला मनुष्य, बाज़ार के लिए किसी कूड़ेदान की तरह होता है... सड़क के किनारे लगे मोबाईल कंपनी के बैनरों को देखकर उन्हें याद आता है किसी से बात किये उन्हें कितने दिन गुज़र गए हैं...
ख़ामोशी की कितनी तहें ज़म चुकी हैं उनके अन्दर... जैसे ख़ामोशी का कोई थान हो-- तहाकर रखा गया थान... ख़ामोशी का थान... किसी के साथ न बोलना, अपने अन्दर के बहुत सारे विस्फोटों को सुनने जैसा होता है...
आज केतन के लापता हुए ८ दिन गुज़र गए हैं... देवदत्त बिखरना नहीं चाहते, उम्मीद और संशय के बीच, एक ज़र्ज़र सी खुशफहमी लिए, केतन के घर आने की आस में इधर उधर भटकते हैं...
केतन के लौट आने की जिस बेताबी के साथ देवदत्त प्रतीक्षा करते हैं, वो मारक सिद्ध होती है उनके लिए... देवदत्त इन आठ दिनों में कितने बदल गए हैं... वो इंसान नहीं लगते, कोई पिरामिड लगते हैं--हज़ारों साल पुराना पिरामिड--चुपज़दा पिरामिड ! अपने अन्दर, अकेलेपन की अजीब सी गंध और उदासी की बेतरतीब लिपियों को समेटे हुए एक पिरामिड... जैसे चल न रहा हो रेंग रहा हो... अपने समय की वर्तमानता से पिछड़ा हुआ, डरा हुआ पिरामिड.... देवदत्त...
इसी तरह के ज़ज्बातों से लिपटी हुई कहानी आगे बढती है, लगभग आधा उपन्यास ख़त्म कर चुका हूँ... कहानी में भले ही कोई रोमांच न हो लेकिन कहानी एकदम अन्दर दिल में उतरकर चहलकदमी करती है... कई बार आखों के कोर नम हो जाते हैं... एक पिता के आस पास पसरा ये एकांत.... उफ्फ्फ्फ़...
खैर मैं पढता रहूँगा और आगे की बातें बताता रहूँगा... तबतक अगर हो सके तो आप भी लीजिये "चाय का दूसरा कप"... और बताईये कैसी लगी ये किताब....
आगे की बातें अगली पोस्ट में...

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